Friday, October 29, 2010

समंदर में बूंद के समान एक प्रयास

देश में दिनों दिन भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और इसका सबसे ज्यादा असर दिख रहा है आज के बचपन पर। उस बालमन पर जो पहले से ही टीवी, सीनेमा, बिखरते परिवार, पाश्चात्य संस्कृति व किताबों के बोझ तले दबा हुआ है। गरीबी ने भी सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चों को किया है। जो उम्र खेलने-कूदने की होती है, उसमें बच्चे गंदगी के ढेर पर कचरा बीनते दिखाई दे रहे हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं और शायद यही वजह है कि बच्चे अब अपराध की ओर आसानी से अग्रसर हो रहे हैं। देश-दुनिया में बाल श्रमिकों, बाल शिक्षा, बाल स्वास्थ्य एवं बच्चों की अन्य समस्याओं के नाम पर अरबों-खरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन सतही तौर पर देखें तो हालात जस के तस बने हुए हैं। भारत में भी बच्चों को लेकर कभी सरकार, कभी समाज, कभी मीडिया तो कभी न्यायिक तंत्र गंभीर दिखता, लेकिन महज दिखावटी तौर पर। हकीकत में कुछेक लोगों व संस्थाओं के अलावा कोई भी गंभीर नहीं है। हालांकि कुछ मीडिया वर्कर जरूर बच्चों की समस्याओं को उजागर करते हैं, लेकिन उन पर भी संस्था व संपादकों के हित भारी पड़ जाते हैं। एनजीओ की लूट-खसौट बरकरार है तो सफेदपोशों व नौकरशाहों से उम्मीद करना ही बेमानी है। निश्चित ही यह अतिगंभीर समस्या है और इसके लिए जरूरत है एक क्रांति की, जिसे सफल बनाने के लिए सबकी सहभागिता जरूरी है। इसी सोच के चलते समंदर में बूंद के समान एक प्रयास करने की कोशिश की है, उम्मीद है आपका सहयोग मिलेगा और आप भी इस अभियान में शामिल होंगे। 

कैसा बचपन कैसी शिक्षा

सुना था तीसरा नेत्र है आदमी का
शिक्षा ही, आधार है देश की तरक्की का
अनेक प्रयास किए गए शिक्षा का स्तर बढ़ाने का,
अनिवार्य हुई शिक्षा बच्चों के लिए...
शिक्षा का स्तर बढ़ा, बनाई गई तरह-तरह की योजनाएँ
लेकिन आज भी, बच्चे पढ़ते हैं,
सरकारी कागजों पर
विद्यालयों का रास्ता नहीं देख पाते बहुत से बच्चे,
शिक्षा के ठेकेदार बैठते हैं होटलों में,
बाते करते हैं अनिवार्य बाल शिक्षा की
और उन्हीं के जूते टेबल को
साफ़ करता दस वर्ष का बच्चा
निकल जाता है
प्रदेश का पुस्तक मेला, बहुत बड़ा पुस्तक मेला,
विविध भाषा की रंग-बिरंगी पुस्तकें
एक किशोरी बारह वर्ष की,
आँखों में कैशोर्य के सपने,
मैले-कुचैले कपड़े पहने,
हाथों में चिर-परिचित-
पीढिय़ों से चली आ रही विरासत
झाड़ू ......झाड़ू लगाते-लगाते पुस्तक देखती
ललचाई नजऱों से
फिर थोड़ा स्पर्श करती, डरते-डरते चित्र देखती,
पढऩे का प्रयास कराती शायद ...
शायद उसे पता नहीं था अपने अधिकार का 
कार्यशाला ज़ारी है, नई शिक्षा पद्धति पर
प्रश्न था ........
कैसे हो बच्चों का मूल्यांकन?
बहुत से गुरुजन प्रस्तुत कर रहे थे अपने-अपने कर्म
लोग नाश्ता करते हैं और
नाश्ता कराता है लगभग आठ वर्ष का एक मासूम ....
बरतन धोता है
उसकी नजऱ बरतन पर कम
मैदान में खेलते बच्चों पर ही टिकी है .......
सब चले गए, अब वह खाली है
दो बच्चे उसी के उम्र के,
खेल रहे थे बास्केट बाल
वह बच्चा दौड़ता है उन्हीं के साथ
और आनंदित होता है
शायद छू लेना चाहता है, बॉल केवल एक बार
एक मासूम सा बच्चा चाय देता है स्कूल में
खोया-खोया सा रहता है 
शायद स्कूल में आकर बैठ जाता है किसी कक्षा में
क्या यही अधिकार है शिक्षा का
सारा देश भरा पडा है
बाल शिक्षा के अधिकार के विज्ञापनों से 
पर सब सारहीन .......!
यह कैसा बचपन और कैसी शिक्षा है? ......


दीपक कुमार,  गाजीपुर, उत्तर प्रदेश